How we chant… and how our Äcäryas want us to chant & do Bhakti…!!

भक्त− हरे कृष्णा महाराज जी !

महाराज जी ! देश विदेश से कई सारे भक्तों के emails आते हैं, phone पर calls आते हैं । उनके कई सारे प्रश्न रहते हैं और सभी की एक ही विनती होती है कि वे आपके मुख से direct उन प्रश्नों का उत्तर जानना चाहते हैं । तो कृपा करके उनके प्रश्नों का उत्तर दें महाराज जी ।

एक भक्त हैं, उन्होंने हमें email लिखी थी । उसमें उन्होंने हमसे यह प्रश्न पूछा था कि उनको बताया गया है कि जप करते हुए क्या चेतना रखनी चाहिये ।

तो वो बता रहे हैं कि जप करते हुए उनको बताया जाता है कि उन्हें राधारानी जो हैं, उनसे प्रार्थना करनी है कि, “हे राधारानी ! हे Energy of the Lord ! आप मुझे कृष्ण की सेवा में लगायें ।” क्या यह चेतना सही है ? क्या इस चेतना में ही जप करना चाहिये ? हम अयोग्य हैं । हमें नहीं पता कि किस चेतना में करना चाहिये । कृपया करके आप मार्गदर्शन करें ।

महाराज जी− यह प्रश्न है कि जप किस चेतना में करना चाहिये । ऐसा वर्णन आता है कि “O Kåñëa ! O Energy of Kåñëa ! हे राधारानी ! आप हमें अपने कृष्ण की सेवा में लगाइये ।” ऐसा आप बता रहे हैं, ऐसा सुनने में आता है, और फिर यह भी कहा जाता है कि अभी हम योग्य नहीं हैं कृष्ण की सेवा के । तो हे राधारानी ! आप हमें कृष्ण की सेवा में लगायें, तो क्या यह सही है या गलत है ? देखिये, हम आपको आचार्यों की वाणी प्रस्तुत कर देंगे । उसके बाद आप स्वयं मूल्यांकन कर सकते हैं कि सही है या गलत है ।

श्रीश्रीराधारससुधानिधि श्रील प्रबोधानन्द सरस्वतिपाद द्वारा विरचित ग्रन्थ है । इसका जो श्लोक संख्या है २५९, उसमें बताया गया है−
“ध्यायंस्तं शिखिपिच्छमौलिमनिशं ताम सीर्तय-
ित्यं तच्चरणाम्बुजं परिचरंस्तन्मन्त्रवर्यं जपन् ।”

इस प्रकार से यह श्लोक है और इसका अर्थ है कि‌ आचार्य शिक्षा दे रहे हैं इस श्लोक के माध्यम से कि किस प्रकार से एक भक्त की चेतना होनी चाहिये जप करते‌ हुए व अन्यथा । तो क्या होना चाहिये एक गौड़ीय वैष्णव का मानसिक दृष्टिकोण सर्वथा ? हर समय क्या होना चाहिये ? यह श्लोक है । इस ग्रन्थ का सब सम्प्रदायों में आदर है… राधारससुधानिधि, वृन्दावनमहिमामृत– ये प्रबोधानन्द सरस्वतिपाद द्वारा विरचित ग्रन्थ हैं । सब सम्प्रदायों में इनका आदर है । चाहे निम्बार्क सम्प्रदाय हो, चाहे राधावल्लभी सम्प्रदाय हो, चाहे गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय हो, हर जगह इन ग्रन्थों को as a Law Book माना जाता है… कि कभी कुछ मन में हो कि इसका वास्तविक उत्तर क्या है…तो सभी सम्प्रदाय के लोग इन्हीं ग्रन्थों को refer करते हैं । तो बता रहे हैं कि जो गौड़ीय वैष्णव हैं, उनको किस प्रकार से जप करना चाहिये ? किस प्रकार से ध्यान करना चाहिये ?

“ध्यायंस्तं शिखिपिच्छमौलिम”
यहाँ बताया जा रहा है कि “श्रीराधापददास्यमेव परमाभीष्टं हृदा धारयन्” । समझ आ रहा है ? श्रीराधापददास्यमेव– केवल राधापददास्य– कि मैं राधारानी के चरणों की‌ दासी बनना चाहती हूँ । केवल इसी बात को सर्वदा ध्यान कर हमेशा सारी भक्ति की क्रियायें करनी चाहिये एक‌ गौड़ीय वैष्णव को । मैं राधारानी के चरणों की दासी बनना चाहती हूँ । राधाकृष्ण की सेवा करना चाहती हूँ । तो यह श्लोक बताया जा रहा है । इस भाव को धारण करके हमें श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिये…इस भाव को धारण करके । क्या भाव ? कि मुझे राधारानी की दासी बनना है, मुझे राधाकृष्ण की सेवा करनी है उनकी दासी के रूप में । इस भाव को ध्यान करके श्रीकृष्ण का सदैव ध्यान करना चाहिये, श्रीकृष्ण के नाम का सदैव कीर्तन करना चाहिये एवं जो श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं, वो भी केवल इसी लोभ से करनी चाहिये कि मुझे वे श्रीकृष्ण जो हैं, राधारानी के चरणों की दासी बनायें । और उनके मन्त्रराज… जो मन्त्रराज… जो जप करते हैं काम बीज, काम गायत्री भी जो करते हैं, वो भी जप जो करना चाहिये, केवल एक ही अभिलाषा से करना चाहिये कि ये सब से प्रसन्न हो जायें श्रीकृष्ण और मुझे राधारानी के चरणों की दासी बना दें । सारा कृष्ण नाम, कृष्ण मन्त्र, कृष्ण सेवा, कृष्ण ध्यान किसलिये करना चाहिये ? कि श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर मुझे राधारानी की चरणसेवा में लगा दें ।

और आपने प्रश्न किया कि “O Energy of Kåñëa ! Please engage me in Kåñëa’s Service”, ये एकदम विपरीत हैं बातें− जैसे बायें और दायें होता है । आचार्य बता रहे हैं कि हे कृष्ण ! मुझे राधारानी की सेवा में लगाओ, और आप जो कह रहे हैं कि “Please engage…O Energy of Kåñëa ! Please engage me in Kåñëa’s Service”− ये बिल्कुल विपरीत बातें हैं । आप खुद सोच सकते हैं कि क्या सही है… कि प्रबोधानन्द सरस्वती कभी गलत हो सकते हैं ? क्योंकि दोनों में से एक ही चीज़ सही है क्योंकि एक पूर्व की ओर जा रही है, एक पश्चिम की ओर जा रही है । वो हम खुद मूल्यांकन कर सकते हैं कि क्या सही है । और
“गौराेर सीगणे, नित्यसिद्ध करि माने, से जाय व्रजेन्द्रसुत पाश”
गौराेर सीगणे….ये प्रबोधानन्द सरस्वती, महाप्रभु के सीगण हैं, निज पार्षद हैं, नित्य पार्षद हैं । तो नित्य पार्षद कभी भी एक शब्द भी इधर से उधर नहीं बोल सकते । सम्भव नहीं है । इसलिये वे कह रहे हैं कि कृष्ण नाम भी लेना है केवल राधादास्य की अभिलाषा से । कृष्ण मन्त्र, कृष्ण सेवा… ये और आप जो दूसरी बात बता रहे थे कि हम राधारानी से प्रार्थना करें कि कृष्ण की सेवा में लगाओ, ये बिल्कुल विपरीत है । आचार्य कह रहे हैं कि कृष्ण से प्रार्थना करो कि वे राधारानी की सेवा में हमें लगायें, जैसे वो खुद लगे हैं ।

श्रील रूपगोस्वामी ने एक बहुत सुन्दर ग्रन्थ लिखा है, वह है चाटुपुष्पांजलि । जो चाटुपुष्पांजलि है, श्रील रूप गोस्वामी अपने एक बहुत ही अन्तरंग ग्रन्थ, जिसका नाम है चाटुपुष्पांजलि, उसमें वर्णन करते हैं−
“करुणां मुहरर्थये परं तव वृन्दावन-चक्रवर्तिनि
अपि केशिरिपोर्यया भवेत् स चटुप्रार्थनभाजन जनः ॥”
अगर आप यह श्लोक, जो हरे कृष्ण जप करते हैं, अगर ध्यान से सुन लेंगे, तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं− आपको कई रात नींद नही आयेगी । यह इतना महत्त्वपूर्ण श्लोक है । क्या बता रहे हैं ? रूप गोस्वामी प्रार्थना कर रहे हैं राधारानी से । “हे राधारानी ! आप मुझ पर ऐसी कृपा करें कि कृष्ण जो हैं, मेरे से विनती कर-कर के, मेरे से प्रार्थनायें करें कि मैं… मुझसे प्रार्थनायें करें कि मैं उनका, कृष्ण का मिलन आप से करवा दूँ । चाटुकारी करें । मेरे से हाथ जोड़कर प्राथनायें करें, विनती करें, निवेदन करें ।”– ये रूप गोस्वामी कह रहे हैं कि इस प्रकार से गौड़ीय वैष्णव को प्रार्थना करनी चाहिये । और आप बता रहे थे कि “हे राधारानी ! मुझे अपने कृष्ण की सेवा में लगाओ ।” यह प्रार्थना नहीं बोल रहे रूप गोस्वामी । हम क्या हैं सब लोग ? ‘रूपानुगा’ ।

रूपानुगा मतलब− रूप-मञ्जरी, रूप गोस्वामी के आनुगत्य में, जो, सारी भक्ति याजन करते हैं– क्रियायें । तो क्या प्रार्थना करनी है, अगर हम रूपानुगा हैं ? यह प्रार्थना नहीं करनी कि “हे राधारानी ! अपने कृष्ण की सेवा में लगाओ ।” उनसे यह बोलना है− “हे राधारानी ! ऐसी कृपा करो कि श्रीकृष्ण मेरे से हाथ जोड़कर प्रार्थना करें कि वो आपकी सेवा में लग सकें ।” जो आपने बताया– ये बिल्कुल, बिल्कुल opposite है । Left और Right… यदि आप रूप गोस्वामी को follow करना चाहते हैं, प्रबोधानन्द सरस्वती को follow करना चाहते हैं, तो हमने बता दिया । और बाकी– यथा इच्छसि तथा कुरु । जैसी आपकी इच्छा‌ हो, कर सकते हैं । परन्तु एक बात निश्चित है कि दोनों में से एक मार्ग बिल्कुल ठीक है और एक मार्ग‌ बिल्कुल गलत है ।

वृन्दावन महिमामृत, प्रेमभक्तिचन्द्रिका, प्रार्थना, विलापकुसुमाञ्जलि, राधारससुधानिधि…ये कुछ ग्रन्थों के नाम हमने बताये हैं । जब तक ये गुरुचरणों में, महापुरुषों के चरणों में बैठकर नहीं समझेंगे, तो भक्ति में सिद्धि का तो प्रश्न बहुत ज़्यादा दूर का है… ABCD of Gauòéya Vaiñëavism भी समझ नहीं आयेगी इन ग्रन्थों के बिना । ये ग्रन्थ इतने महत्त्वपूर्ण हैं…आचार्य वाणी है न… ।