Gaura Dasa in Nitya Navadvipa…but Nitya Vraja svarupa~ Unknown…!! Really??

आपका प्रश्न है कि… यहाँ यह बता रहे हैं कि महाप्रभु के तो हम दास होते हैं…एक स्वरूप में… गौड़ीय वैष्णव । तो ब्रज में हमारा क्या स्वरूप है, यह निश्चित नहीं होता । यह भक्ति कर-कर के…जप कर-कर के पता चलता है कि हम सख्य हैं या दासी हैं या वात्सल्य रस में है । तो क्या… आपका प्रश्न है… क्या यह सही बताया जा रहा है या नहीं ? देखिये, शास्त्र के अनुसार आप जानिये, तो आपको पता चल जायेगा । यह एक बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है ‘श्रीचैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ । इसमें गौरा महाप्रभु अद्वैताचार्य को आशीर्वाद दे रहे हैं…महाप्रभु अद्वैताचार्यजी को आशीर्वाद दे रहे हैं ।

क्या कह रहे हैं.. ? कि “हे आचार्य ! मैं आपको एक दिव्य देह दूँगा ।” क्या बोल रहे हैं अद्वैताचार्य को महाप्रभु ? “मैं आपको दिव्य देह दूँगा जिससे आप मेरे…मेरे…मेरा जैसा दिव्य देह होगा वो… जिससे आप राधाकृष्ण की सेवा करने के योग्य हो पाओगे । मैं दूँगा…है नहीं आपके पास…मैं दूँगा । इस प्रकार से मैं आपको डुबा दूँगा उस प्रेम के समुद्र में, जो राधा दासी को प्राप्त होता है ।” यह महाप्रभु आशीर्वाद दे रहे हैं अद्वैताचार्य को । यह कार्य मेरा अभी शेष रह गया है । मैंने यह कार्य अभी करना है । बस अब मैं यही कार्य करूँगा कि आप लोगों को एक राधा दासी स्वरूप प्रदान करूँगा । यह ‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ है कवि कर्णपूर द्वारा…उसमें यह बताया जा रहा है । जब यह बात सुनी अद्वैताचार्य ने, तो उन्होंने बोला… ।

ये हमने श्लोक…ये हमारे ग्रन्थ में हमने इसका वर्णन किया हुआ है…‘Cannot become a Maïjaré without deep Gaura Bhajana’…तो इसमें आप पेज नम्बर २७ में भी प्राप्त कर सकते हैं और ‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ सीधा पढ़ेंगे, तो उसमें भी यही प्राप्त होगा…जैसे भी करना चाहें ।

अद्वैताचार्य क्या कहते हैं ?

“हे महाप्रभु ! आपकी जो इच्छा है, आप करो । आप हमें मञ्जरी बनाना चाहते हो, आप बनाओ…पर मेरी भी एक इच्छा है । मैं भी आज आपसे याचना करना चाहता हूँ ।” क्या याचना करनी है ? “ठीक है, आप हमें राधा दासी बना दो…पर एक स्वरूप हमें अपने दास के रूप में भी दे दो…कि हमेशा हम आपकी सेवा करते रहें”, और जातिस्मर…जातिस्मर होता है…जातिस्मर समझते हो ? जातिस्मर मतलब जिसमें पूर्व जन्म का याद होता है कि मैं ऐसा था… ।

तो वैसे ही हम सेवा करते-करते अपने ब्रज स्वरूप में, मञ्जरी स्वरूप में भी जा सकें । एक स्वरूप…क्या है… ? महाप्रभु क्या देना चाहते हैं ? महाप्रभु देना चाहते हैं राधा दासी स्वरूप सबको । किस-किस को ? अद्वैताचार्य और सबको…राधा दासी स्वरूप…और अद्वैत क्या माँग रहे हैं…कि मुझे आपके दास का स्वरूप देना जिससे मैं ब्रज लीला में भी प्रवेश कर सकूँ… आपके दास के माध्यम से । तो इसलिये दो स्वरूप हैं गौड़ीय वैष्णव के…एक गौर दास के रूप में और राधाकृष्ण की दासी के रूप में । तो जो प्रश्न आया है कि दासी के स्वरूप में तो…गौर दास के रूप में तो कोई समस्या नहीं हो रही समझने में कि… हाँ, हम एक स्वरूप से तो गौर दास हैं…ब्रज का समझ नहीं आ रहा…शायद दासी हूँ…सखी हूँ…गोपी हूँ…मञ्जरी हूँ…कोई वृद्ध गोपी हूँ…कुछ भी हो सकता है…वात्सल्य रस में हूँ… पर क्या यह सही है… ? यह बिल्कुल गलत है ।

एक होता है थोड़ा-सा गलत, एक होता है बिल्कुल-गलत । कारण ? कारण यह है…श्रील रूप गोस्वामी, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, श्रील ध्यानचन्द्र गोस्वामी…यदि हम इनको अपना आचार्य मानते हैं, तो यह गलत है । श्रील रूप गोस्वामी ने राधाकृष्ण की अष्टकालीन लीला का वर्णन भी किया है कि क्या-क्या होता है पूरे दिन-भर में राधा कृष्ण का । और महाप्रभु की अष्टकालीन लीला का भी वर्णन किया है । प्रमुख रूप से जो महा…

जो हरे कृष्ण जप कर रहे हैं, ध्यान से सुनें ! शायद आप प्रथम बार सुन रहे होंगे ये बातें । महाप्रभु की जो अष्टकालीन लीला है, जो नित्य नवद्वीप है…हमने ग्रन्थ लिखा है ‘नित्य नवद्वीप’, उसमें आप अच्छे से समझ सकते हैं । हम संक्षेप में बता रहे हैं कि नित्य नवद्वीप में महाप्रभु मूलतः राधा-भाव में रहते हैं…समझने की कोशिश कीजियेगा । यह आपको २-४ मिनट में, वो समझ आ जायेगा, जो आपको decades में भी समझ नहीं आया होगा । ध्यान से सुनें एक-एक शब्द को । अष्टकालीन लीला महाप्रभु की जो है, राधा-भाव प्रधान लीला है । महाप्रभु राधा-भाव में रहते हैं अधिकांश…

और स्वरूप दामोदर जब पद-गान करते हैं ब्रज लीला के…आप समझो, दिन भर में लगभग most of the times स्वरूप दामोदर गोस्वामी पद-गान कर रहे हैं, वो पद-गान सुनते-सुनते महाप्रभु राधा-भाव में आविष्ट हो रहे हैं और जो रूप गोस्वामी हैं, सनातन गोस्वामी इत्यादि हैं, वो अपने मञ्जरी भाव में आविष्ट हो रहे हैं क्योंकि ब्रज लीला में जो सुन रहे हो, तो जो जिसका भाव है…महाप्रभु राधा-भाव में आविष्ट होना चाहते हैं, वो उसमें हो रहे हैं । जो मञ्जरी भाव में आविष्ट होना चाहते हैं, वो उसमें हो रहे हैं । इसके अलावा…राधाकृष्ण की लीला का पद-गान करने के अलावा स्वरूप दामोदर गोस्वामी और कोई पद-गान नहीं करते…कोई पद-गान वात्सल्य रस का नहीं होता…

कोई पद-गान दास्य रस का नहीं होता…कोई पद-गान सख्य रस का नहीं होता…कोई पद-गान…कृष्ण की गोपियों के संग मिलन का नहीं होता । केवल और केवल राधा कृष्ण किस प्रकार से मिलते हैं…बरसाना से आते हैं…नन्दीश्वर से आते हैं…इस प्रकार से जैसे अष्टयाम होती है ब्रज में, उसका वो शब्दों द्वारा गान करते हैं । उसका जो गान सुनकर महाप्रभु और अन्य पार्षद अपने स्वरूप में आविष्ट होते हैं ।

तो यह प्रश्न ही गलत है कि ब्रज का स्वरूप हमें पता नहीं है…गौर के तो दास हैं… । यदि आप गौर के दास हो, तो ब्रज में आप मञ्जरी के अलावा…राधा की सेविका के अलावा कुछ हो ही नहीं सकते…हो ही नहीं सकते ।

‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ में बताया न…महाप्रभु ने कि मैं आपको राधाकृष्ण सेवा-उपयोगी दिव्य देह देना चाहता हूँ, तो वो तो दे तो रहे हैं । आप कैसे बोल रहे हो कि हमें पता नहीं है ? वो कह रहे हैं– मैं दे रहा हूँ । यह तो…यह महाप्रभु को न मानने वाली बात हो जाती है, और दूसरी बात है…बुद्धिमता भी नहीं है । जब पद-गान माधुर्य रस का चल रहा है निरन्तर, सभी मञ्जरी भाव में आविष्ट हो रहे हैं, तो आप किसी और में आविष्ट होगे क्या ? आप गौर दास बनोगे कैसे फिर ?? आप बताओ हमें, आप गौर दास बिना राधाकृष्ण दासी के बनोगे कैसे ? सभी अपने मञ्जरी भाव में आविष्ट हो जाते हैं । श्रीवास पण्डित का नाम है श्री मञ्जरी…वो अपने श्री मञ्जरी स्वरूप में आविष्ट हो जाते हैं । हम ज़्यादा खोल कर बताना नहीं चाहते…अन्तरंग बातें हैं…।

अब अद्वैताचार्य का भी मञ्जरी स्वरूप है । हम अब mikes…ये सब open में बातें नहीं हैं करने की…पर कहने का भाव है कि सब अपने-अपने स्वरूप में आविष्ट हो जाते हैं । अद्वैताचार्य का भी मञ्जरी स्वरूप है एक । हमें तो पता है, पर हम…घर की बातें हैं, तो पता होंगी सही । आपके घर में क्या-क्या चल रहा है, तो पता नहीं होता सब कुछ ? तो सब घर की बातें है ।

ये तो हमने बताया ‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ से कि महाप्रभु वो सेवा…वो दिव्य देह देना चाहते हैं, जिससे राधाकृष्ण की सेवा हो सके, और अद्वैताचार्य क्या माँग रहे हैं ? कि मुझे आप अपना गौर पार्षद…गौर दास बना दो । ये तो एक बात बतायी है हमने । दूसरा…इस प्रश्न का उत्तर जो है, दूसरे प्रकार से भी दे सकते हैं…नरोत्तमदास ठाकुर से ।

हम यह पूछना चाहेंगे…जो भी आप प्रश्न पूछ रहे हैं, आपको किस-किस दृष्टिकोण से…आप उत्तर चाहते हैं, हम आपको उस-उस दृष्टिकोण से उत्तर देंगे । किन-किन आचार्यों की वाणी से चाहते हैं, उन-उन आचार्यों की वाणी से आपको उत्तर दे सकते हैं इन प्रश्नों के ।

नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैं…उनकी ‘प्रार्थना’ नामक एक पुस्तिका है । उसमें कहते हैं ‘हेथाय चैतन्य मिले सेथा राधाकृष्ण’… कि यहाँ चैतन्य मिलते हैं, वहाँ राधाकृष्ण मिलते हैं । बताओ प्रश्न क्या है कि कौन सा…ब्रज में कौन सा स्वरूप है, हमें मालूम नहीं है । कैसे मालूम नहीं है ? आप यह बोल सकते हो कि आपको मालूम नहीं है । आप यह नहीं बोल सकते कि मालूम ही नहीं है । नरोत्तमदास ठाकुर को तो मालूम है । वे क्या बोल रहे हैं– ‘हेथाय’हेथा…यहाँ मिलते हैं । ‘हेथाय चैतन्य मिले सेथा राधाकृष्ण’…वहाँ राधाकृष्ण मिलते हैं ।

यह नरोत्तमदास ठाकुर बता रहे हैं और अन्य जगह पर भी नरोत्तमदास ठाकुर क्या बता रहे हैं– ‘गौर-प्रेम रसार्णवे, से तरंगे जेबा डुबे, से राधामाधव अन्तरंग’… जो गौर प्रेम में डूब जाते हैं, ‘गौर-प्रेम रसार्णवे, से तरंगे जेबा डुबे’…जो गौर प्रेम के तरंग में डूब जाते हैं यानि कि पद-गान हुआ, उसमें डूब गये, तो क्या बनते हैं ? कृष्ण-बलराम के दोस्त या वो सख्य, दास, गोपी बनते हैं या दास बनते हैं ? क्या बनते हैं ? ‘से तरंगे जेबा डुबे’…कैसे डूबते हैं ? पद-गान हुआ…डूब गये…क्या बन गये ? ‘से राधामाधव अन्तरंग’…वो राधामाधव की अन्तरंग दासी बन जाते हैं । कोई doubt है ? नहीं समझ आ रहा ? सब कुछ कितना स्पष्ट है यदि आचार्य वाणी को हम बिना किन्तु-परन्तु के मान लें ।

और अगर आप और दृष्टिकोण से भी समझना चाहते हो, तो और दृष्टिकोण से आप समझ सकते हो । कहाँ से समझना चाहोगे ? ‘चैतन्य चरितामृत’ या ‘चैतन्य चन्द्रामृत’, कहाँ से समझना चाहोगे ? जहाँ से कहोगे ।

अब अगर हमारे पर महाप्रभु की करुणा होगी, तो हम ब्रज में क्या बनेंगे ? यही प्रश्न है न कि…भाई ! ब्रज का clear नहीं है । आपको clear नहीं है…आप ये बोल दो बस… । हाँ…हम… । बाकी, जो अटूट परम्परा से जो भी जुड़े हैं, उनके तो…उनके तो बच्चों को भी clear होता है । जैसे ये हमारे ये शिष्य लोग हैं, इनके जो छोटे बच्चे हैं ५-५ साल के, उनको भी पता है कि हम महाप्रभु के दास हैं और राधाकृष्ण की दासी । उनको भी भोग लगाना आता है ।

तो क्या बोल रहे हैं ठाकुर महाशय… ।

क्योंकि वो रोज़ देखते हैं, सीखते हैं हम लोगों को…कि ये कैसे भोग लगाते हैं ।

‘निताइयेर करुणा हबे, व्रजे राधाकृष्ण पाबे’…ये नहीं बोल रहे– ‘निताइयेर करुणा हबे, सेइ कृष्ण-बलराम पाबे’ । ऐसे नहीं बोला जा रहा…‘सेइ नृसिंहदेव पाबे’ । ऐसा नहीं बोला जा रहा… । ऐसा नहीं बोला जा रहा… । क्या बोल रहे हैं ? ‘व्रजे राधाकृष्ण पाबे’…स्पष्ट बोला जा रहा है । और जो गौड़ीय वैष्णव होते हैं, उनके प्राण कौन होते हैं… ? निताइ चैतन्य…निताइ गौर । अब देखो हम परिक्रमा करते हैं, तो निताइ गौर हमारे प्राण हैं…उनको हम आगे…हमारे चलते हैं, हम उनके पीछे चलते हैं । तो अगर आप ‘चैतन्य चरितामृत’ पर विश्वास करते हैं…,आपके कृष्ण हैं… तो चरितामृत पर विश्वास करते हैं, तो वहाँ से समझ लो फिर ।

“याँर प्राणधन−नित्यानन्द श्रीचैतन्य, राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य”…‘याँर प्राणधन−निताइ श्रीचैतन्य’…जिनके प्राणधन निताइ और श्रीचैतन्य, वो ‘राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य’…वो राधाकृष्ण की भक्ति बिना अन्य कुछ जानते ही नहीं हैं… । बताओ…अब भी बोलोगे हमें पता नहीं है…कौन से… । हम तो…नित्यानन्द प्रभु को पता है, कृष्णदास कविराज को पता है, नरोत्तमदास ठाकुर को पता है, हमको पता है, सबको पता है, आपको क्यों नहीं पता ? आप क्यों नहीं आचार्यों की वाणी को follow करते ? करुणा कर के उनकी वाणी आपको प्राप्त हो रही है…‘राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य’‘याँर प्राणधन−निताइ श्रीचैतन्य’ और slow बोलें…‘याँर प्राणधन−निताइ श्रीचैतन्य’…जिनके प्राणधन निताइ श्रीचैतन्य हैं, ‘राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य’…राधाकृष्ण की भक्ति के बिना वो कुछ नहीं जानते । अब इससे स्पष्ट क्या बोलेंगे ? बोलो… ? ‘चैतन्य चन्द्रामृत’ नहीं…ये ‘चैतन्य चरितामृत’ था… ।

अक्षर भी…चरितामृत और चन्द्रामृत थोड़े अलग अक्षर हैं…तो चैतन्य चन्द्रामृत से भी जान सकते हैं थोड़ा सा… । देखिये, हम जो बोल रहे हैं, हम कभी नहीं कह रहे, आप हमारी बात को सुनो या हमारे गुरुजी की बात को सुनो…हम क्या कह रहे हैं… ? ये रूप गोस्वामी हैं और आपके कृष्णदास कविराज और नरोत्तमदास ठाकुर और प्रबोधानन्द सरस्वती…जो भी महान आचार्य हैं… ।

यह है श्लोक ८७ ‘चैतन्य चन्द्रामृत’ । इससे भी स्पष्ट होता है−

“यथा यथा गौरपदारविन्दे विन्देत भक्तिं कृत पुण्यराशिः

तथा तथोत्सर्पति हृदयकस्मात् राधा-पदाम्भोज सुधाम्बुराशिः

माने ‘यथा यथा गौरपदारविन्दे’… माने जैसे-जैसे गौर में भक्ति होती है…

‘विन्देत भक्तिं कृत पुण्यराशि:’ जैसे-जैसे गौर में भक्ति होती है…‘तथा तथोत्सर्पति हृदयकस्मात्’…माने…तथा तथा… । पहले बोला है यथा यथा…जैसे-जैसे गौर में भक्ति होती है, तथा तथा… वैसे-वैसे राधारानी की चरण…राधारानी अकस्मात् अचानक से हृदय में प्रकाशित हो जाती हैं ।

अभी भी कोई doubt है कि हम राधाकृष्ण की सेवा के अलावा किसी और रस में हो सकते हैं ? महाप्रभु के…में तो…दास हैं… । स्पष्ट तो बोल रहे हैं…महाप्रभु के दास हो, तो क्या होगा ? दास होते-होते ही सब कुछ हो जायेगा । राधाकृष्ण का प्रेम प्राप्त…खेल तमाशा समझा है बच्चे ? जिस क्षेत्र में प्रवेश नहीं है, बोला मत करो उस विषय में । बालकों को बड़ों की बातें नहीं बोलनी चाहिये । आचार्यजनों से सुनना चाहिये, सीखना चाहिये श्रीचरणों में बैठकर कि क्या सत्य है ।

‘यथा यथा गौर पदारविन्दे’…जिस मात्रा में गौर प्रेम में हमारा मन आविष्ट होगा, उस मात्रा में राधारानी के चरण प्रकाशित होंगे ही होंगे । आप बोल रहे हो…और दृष्टिकोण भी देख सकते हो, जो पिछले ४०० वर्ष से…जो मन्त्र होते थे…गुरु मञ्जरी मन्त्र, रूप मञ्जरी मन्त्र, अनंग मञ्जरी मन्त्र, ललिता सखी मन्त्र, ये मन्त्र तभी तो करेंगे, जब उनकी प्राप्ति करनी होगी ।आपका स्वरूप…कह रहे हो नहीं पता ब्रज में कि क्या होगा, तो ये मन्त्र किसलिये दिये गये हैं हमारे आचार्यों द्वारा ? रूप मञ्जरी मन्त्र करोगे, end में पता चलेगा कि आप भगवान् के सखा हो… ? आपको ये sense लगती है किसी को भी…ये बात ?

अच्छा…आप कामबीज, कामगायत्री करते हो…अच्छा… तो आप कामबीज, कामगायत्री कर रहे हो, और आपको अन्त में पता चलेगा कि आप दास हो या वात्सल्य रस में हो… ? अगर ये ‘चैतन्य चन्द्रामृत’ को ही विश्वास करते हो, तो समझो…“वृन्दावने ‘अप्राकृत नवीन मदन’ कामगायत्री कामबीजे याँर उपासन माने जो कामबीज होता है…कृष्ण मन्त्र और कृष्णगायत्री होते हैं, ये अप्राकृत नवीन मतलब Transcendental Cupid की उपासना है । समझ रहे हो… ? Cupid…दिव्य कामदेव की उपासना है…Transcendental Cupid की…अप्राकृत नवीन मदन की… । और आप ये अप्राकृत नवीन मदन के मन्त्र कर रहे हो, अभी आपको doubt है कि आप सखा हो कि दासी हो… ? ? अब थोड़ी तो sensible बात करें ।