Gaura Däsa in Nitya Navadvépa…
but Nitya Vraja svarüpa ~ Unknown…!! Really??

भक्त– महाराज जी ! Iskcon के अनेक भक्तों का यह प्रश्न है कि Iskcon में बताया जाता है कि नवद्वीप में हमारा क्या स्वरूप है, वो हमें पता होता है, की हम महाप्रभु के दास हैं । पर ब्रज में हमारा क्या स्वरूप होता है, वो हमें पता नहीं होता है । सत्य क्या है, कृपया करके मार्गदर्शन करें महाराज जी ।

महाराज जी– तो यहाँ यह वर्णन किया जा रहा है…देखिये हम किसी व्यक्ति की बात नहीं करना चाहेंगे कि कौन क्या बोल रहा है…कि कौन बोल रहे हैं । हम सिर्फ यह बताना चाहेंगे कि जो बोला जा रहा है, वह शास्त्रीय दृष्टिकोण से सही है या गलत है ? आपका प्रश्न है कि… यहाँ यह बता रहे हैं कि महाप्रभु के तो हम दास होते हैं…एक स्वरूप में… गौड़ीय वैष्णव । तो ब्रज में हमारा क्या स्वरूप है, यह निश्चित नहीं होता । यह भक्ति कर-कर के…जप कर-कर के पता चलता है कि हम सख्य हैं या दासी हैं या वात्सल्य रस में है । तो क्या… आपका प्रश्न है… क्या यह सही बताया जा रहा है या नहीं ? देखिये, शास्त्र के अनुसार आप जानिये, तो आपको पता चल जायेगा । यह एक बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है ‘श्रीचैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ । इसमें गौरा महाप्रभु अद्वैताचार्य जी को आशीर्वाद दे रहे हैं…महाप्रभु अद्वैताचार्य जी को आशीर्वाद दे रहे हैं ।

क्या कह रहे हैं..? कि “हे आचार्य ! मैं आपको एक दिव्य देह दूँगा ।” क्या बोल रहे हैं अद्वैताचार्य को महाप्रभु ? “मैं आपको एक दिव्य देह दूँगा, मेरे…मेरे…मेरा जैसा दिव्य देह होगा वो… जिससे आप राधाकृष्ण की सेवा करने के योग्य हो पाओगे । मैं दूँगा…है नहीं आपके पास…मैं दूँगा । इस प्रकार से मैं आपको डुबा दूँगा उस प्रेम के समुद्र में, जो राधा दासी को प्राप्त होता है ।” यह महाप्रभु आशीर्वाद दे रहे हैं अद्वैताचार्य को । “यह कार्य मेरा अभी शेष रह गया है । मैंने यह कार्य अभी करना है । बस अब मैं यही कार्य करूँगा कि आप लोगों को एक राधा दासी स्वरूप प्रदान करूँगा ।” यह ‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ है कवि कर्णपूर द्वारा…उसमें यह बताया जा रहा है । जब यह बात सुनी अद्वैताचार्य ने, तो उन्होंने बोला…।

ये हमने श्लोक…ये हमारे ग्रन्थ में हमने इसका वर्णन किया हुआ है…‘Cannot become a Maïjaré without deep Gaura Bhajana’…तो इसमें आप पेज नम्बर २७ में भी प्राप्त कर सकते हैं और ‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ सीधा पढ़ेंगे, तो उसमें भी यही प्राप्त होगा…जैसे भी करना चाहें ।

अद्वैताचार्य क्या कहते हैं ?
“हे महाप्रभु ! आपकी जो इच्छा है, आप करो । आप हमें मञ्जरी बनाना चाहते हो, आप बनाओ…पर मेरी भी एक इच्छा है । मैं भी आज आपसे याचना करना चाहता हूँ ।” क्या याचना करनी है ? “ठीक है, आप हमें राधा दासी बना दो…पर एक स्वरूप हमें अपने दास के रूप में भी दे दो…कि हमेशा हम आपकी सेवा करते रहें”, और जातिस्मर…जातिस्मर होता है…जातिस्मर समझते हो ? जातिस्मर मतलब जिसमें पूर्व जन्म का याद होता है कि मैं ऐसा था… ।

तो वैसे ही हम सेवा करते-करते अपने ब्रज स्वरूप में, मञ्जरी स्वरूप में भी जा सकें । एक स्वरूप क्या है… ? महाप्रभु क्या देना चाहते हैं ? महाप्रभु देना चाहते हैं राधा दासी स्वरूप सबको । किस-किस को ? अद्वैताचार्य और सबको…राधा दासी स्वरूप…और अद्वैत क्या माँग रहे हैं…कि मुझे आपके दास का स्वरूप देना जिससे मैं ब्रज लीला में भी प्रवेश कर सकूँ… आपके दास के माध्यम से । तो इसलिये दो स्वरूप हैं गौड़ीय वैष्णव के…एक गौर दास के रूप में और एक राधाकृष्ण की दासी के रूप में ।

तो जो प्रश्न आया है कि दासी के स्वरूप में तो…गौर दास के रूप में तो कोई समस्या नहीं हो रही समझने में कि… हाँ, हम एक स्वरूप से तो गौर दास हैं…ब्रज का समझ नहीं आ रहा…शायद दासी हों…सखी हों…गोपी हों…मञ्जरी हों…कोई वृद्ध गोपी हों…कुछ भी हो सकता है…वात्सल्य रस में हों… पर क्या यह सही है…?

यह बिल्कुल गलत है । एक होता है थोड़ा सा गलत, एक होता है बिल्कुल गलत । कारण ? कारण यह है…श्रील रूप गोस्वामी, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, श्रील ध्यानचन्द्र गोस्वामी…यदि हम इनको अपना आचार्य मानते हैं, तो यह गलत है । श्रील रूप गोस्वामी ने राधाकृष्ण की अष्टकालीन लीला का वर्णन भी किया है कि क्या-क्या होता है पूरे दिन-भर में राधा कृष्ण का । और महाप्रभु की अष्टकालीन लीला का भी वर्णन किया है ।

जो हरे कृष्ण जप कर रहे हैं, ध्यान से सुनें ! शायद आप प्रथम बार सुन रहे होंगे ये बातें । महाप्रभु की जो अष्टकालीन लीला है, जो नित्य नवद्वीप है…हमने एक ग्रन्थ लिखा है ‘नित्य नवद्वीप’, उसमें आप अच्छे से समझ सकते हैं । हम संक्षिप्त में बता रहे हैं कि नित्य नवद्वीप में महाप्रभु पूर्णतः राधा-भाव में रहते हैं… समझने की कोशिश कीजियेगा, यह आपको २-४ मिनट में वो समझ आ जायेगा, जो आपको decades में भी समझ नहीं आया होगा । ध्यान से सुनें एक-एक शब्द को । अष्टकालीन लीला महाप्रभु की जो है, राधा-भाव प्रधान लीला है । महाप्रभु राधा-भाव में रहते हैं अधिकांश…

और स्वरूप दामोदर जब पद-गान करते हैं ब्रज लीला के…आप समझ लो, दिन भर में लगभग most of the times स्वरूप दामोदर गोस्वामी पद-गान कर रहे हैं, वो पद-गान सुनते-सुनते महाप्रभु राधा-भाव में आविष्ट हो रहे हैं और जो रूप गोस्वामी हैं, सनातन गोस्वामी इत्यादि हैं, वे अपने मञ्जरी भाव में आविष्ट हो रहे हैं क्योंकि ब्रज लीला में जो सुन रहे हो, तो जो जिसका भाव है…महाप्रभु राधा-भाव में आविष्ट होना चाहते हैं, वो उसमें हो रहे हैं । जो मञ्जरी भाव में आविष्ट होना चाहते हैं, वो उसमें हो रहे हैं । इसके अलावा…राधाकृष्ण की लीला का पद-गान करने के अलावा स्वरूप दामोदर गोस्वामी और कोई पद-गान नहीं करते…कोई पद-गान वात्सल्य रस का नहीं होता… कोई पद-गान दास्य रस का नहीं होता…कोई पद-गान सख्य रस का नहीं होता…कोई पद-गान कृष्ण की गोपियों के संग मिलन का नहीं होता । केवल और केवल राधा कृष्ण किस प्रकार से मिलते हैं…बरसाना से आते हैं…नन्दीश्वर से आते हैं…, इस प्रकार से जैसे अष्टयाम होती है ब्रज में, उसका वो शब्दों द्वारा गान करते हैं । उसका जो गान सुनकर महाप्रभु और अन्य पार्षद अपने स्वरूप में आविष्ट होते हैं ।

तो यह प्रश्न ही गलत है कि ब्रज का स्वरूप हमें पता नहीं है…गौर के तो दास हैं… । यदि आप गौर के दास हो, तो ब्रज में आप मञ्जरी के अलावा…राधा की सेविका के अलावा कुछ हो ही नहीं सकते…हो ही नहीं सकते ।

‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ में बताया न महाप्रभु ने कि मैं आपको राधाकृष्ण सेवा-उपयोगी दिव्य देह देना चाहता हूँ, तो वो तो दे तो रहे हैं । आप कैसे बोल रहे हो कि हमें पता नहीं है ? वो कह रहे हैं– मैं दे रहा हूँ । यह तो…यह महाप्रभु को न मानने वाली बात हो जाती है, और दूसरी बात है…बुद्धिमता भी नहीं है । जब पद-गान माधुर्य रस का चल रहा है निरन्तर, सभी मञ्जरी भाव में आविष्ट हो रहे हैं, तो आप किसी और में आविष्ट होगे क्या ? आप गौर दास बनोगे कैसे फिर ?? आप बताओ हमें, आप गौर दास बिना राधाकृष्ण दासी के बनोगे कैसे ? सभी अपने मञ्जरी भाव में आविष्ट हो जाते हैं । श्रीवास पण्डित का नाम है श्री मञ्जरी…वो अपने श्री मञ्जरी स्वरूप में आविष्ट हो जाते हैं । हम ज़्यादा खोल कर बताना नहीं चाहते…अन्तरंग बातें हैं…।

अब अद्वैताचार्य का भी मञ्जरी स्वरूप है । हम अब mikes…ये सब open में बातें नहीं हैं करने की…पर कहने का भाव है कि सब अपने-अपने स्वरूप में आविष्ट हो जाते हैं । अद्वैताचार्य का भी मञ्जरी स्वरूप है एक । हमें तो पता है, पर हम…घर की बातें हैं, तो पता होंगी ही सही । आपके घर में क्या-क्या चल रहा है, पता नहीं होता सब कुछ ? तो सब घर की बातें है ।

ये तो हमने बताया ‘चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ से कि महाप्रभु वो सेवा…वो दिव्य देह देना चाहते हैं, जिससे राधाकृष्ण की सेवा हो सके । और अद्वैताचार्य क्या माँग रहे हैं ? कि मुझे आप अपना गौर पार्षद…गौर दास बना दो । यह तो एक बात बतायी है हमने । दूसरा…इस प्रश्न का उत्तर जो है, दूसरे प्रकार से भी दे सकते हैं…नरोत्तमदास ठाकुर से ।

हम यह पूछना चाहेंगे…जो भी आप प्रश्न पूछ रहे हैं, आपको किस-किस दृष्टिकोण से आप उत्तर चाहते हैं, हम आपको उस-उस दृष्टिकोण से उत्तर देंगे । किन-किन आचार्यों की वाणी से चाहते हैं, उन-उन आचार्यों की वाणी से आपको उत्तर दे सकते हैं इन प्रश्नों के ।

नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैं…उनकी ‘प्रार्थना’ नामक एक पुस्तिका है । उसमें कहते हैं ‘हेथाय चैतन्य मिले सेथा राधाकृष्ण’… कि यहाँ चैतन्य मिलते हैं, वहाँ राधाकृष्ण मिलते हैं । बताओ प्रश्न कहाँ है कि कौन सा…ब्रज में कौन सा स्वरूप है, हमें मालूम नहीं है । कैसे मालूम नहीं है ? आप यह बोल सकते हो कि आपको मालूम नहीं है । आप यह नहीं बोल सकते कि मालूम ही नहीं है । नरोत्तमदास ठाकुर को तो मालूम है । वे क्या बोल रहे हैं– ‘हेथाय’…हेथा…यहाँ मिलते हैं, ‘हेथाय चैतन्य मिले सेथा राधाकृष्ण’…वहाँ राधाकृष्ण मिलते हैं ।

यह नरोत्तमदास ठाकुर बता रहे हैं और अन्य जगह पर भी नरोत्तमदास ठाकुर क्या बता रहे हैं– ‘गौर-प्रेम रसार्णवे, से तरंगे जेबा डुबे, से राधामाधव अन्तरंग’… जो गौर प्रेम में डूब जाते हैं, ‘गौर-प्रेम रसार्णवे, से तरंगे जेबा डुबे’… जो गौर प्रेम के तरंग में डूब जाते हैं यानी कि पद-गान हुआ, उसमें डूब गये, तो क्या बनते हैं ? कृष्ण-बलराम के दोस्त या वो सख्य, दास, गोपी बनते हैं या दास बनते हैं ? क्या बनते हैं ? ‘से तरंगे जेबा डुबे’… कैसे डूबते हैं ? पद-गान हुआ…डूब गये…क्या बन गये ? ‘से राधामाधव अन्तरंग’…वो राधामाधव की अन्तरंग दासी बन जाते हैं । कोई doubt है ? नहीं समझ आ रहा ? सब कुछ कितना स्पष्ट है यदि आचार्य वाणी को हम बिना किन्तु-परन्तु के मान लें ।

और अगर आप और दृष्टिकोण से भी समझना चाहते हो, तो और दृष्टिकोण से आप समझ सकते हो । कहाँ से समझना चाहोगे ? ‘चैतन्य चरितामृत’ या ‘चैतन्य चन्द्रामृत’, कहाँ से समझना चाहोगे ? जहाँ से कहोगे ।

अब अगर हमारे पर महाप्रभु की करुणा होगी, तो हम ब्रज में क्या बनेंगे ? यही प्रश्न है न कि…भाई ! ब्रज का clear नहीं है । आपको clear नहीं है…आप ये बोल दो बस… । हाँ…हम… । बाकी, जो अटूट परम्परा से जो भी जुड़े हैं, उनके तो…उनके तो बच्चों को भी clear होता है । जैसे ये हमारे ये शिष्य लोग हैं, इनके जो छोटे बच्चे हैं ५-५ साल के, उनको भी पता है कि हम महाप्रभु के दास हैं और राधाकृष्ण की दासी । उनको भी भोग लगाना आता है ।

तो क्या बोल रहे हैं ठाकुर महाशय… ?
क्योंकि वो रोज़ देखते हैं, सीखते हैं हम लोगों को…कि ये कैसे भोग लगाते हैं ।

‘निताइयेर करुणा हबे, व्रजे राधाकृष्ण पाबे’… ये नहीं बोल रहे– ‘निताइयेर करुणा हबे, सेइ कृष्ण-बलराम पाबे’ । ऐसे नहीं बोला जा रहा…‘सेइ नृसिंहदेव पाबे’ । ऐसा नहीं बोला जा रहा… । ऐसा नहीं बोला जा रहा… । क्या बोल रहे हैं ? ‘व्रजे राधाकृष्ण पाबे’…स्पष्ट बोला जा रहा है । और जो गौड़ीय वैष्णव होते हैं, उनके प्राण कौन होते हैं… ? निताइ चैतन्य…निताइ गौर । अब देखो हम परिक्रमा करते हैं, तो निताइ गौर हमारे प्राण हैं…उनको हम आगे…हमारे चलते हैं, हम उनके पीछे चलते हैं । तो अगर आप ‘चैतन्य चरितामृत’ पर विश्वास करते हैं…,आपका प्रश्न है न… तो चैतन्य चरितामृत पर विश्वास करते हैं, तो वहाँ से समझ लो फिर ।

“याँर प्राणधन−नित्यानन्द श्रीचैतन्य, राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य”…“याँर प्राणधन−निताइ श्रीचैतन्य”…जिनके प्राणधन कौन हैं, निताइ और श्रीचैतन्य, वो ‘राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य’…वो राधाकृष्ण की भक्ति बिना अन्य कुछ जानते ही नहीं हैं… । बताओ…अब भी बोलोगे हमें पता नहीं है…कौन से… । हम तो… नित्यानन्द प्रभु को पता है, कृष्णदास कविराज को पता है, नरोत्तमदास ठाकुर को पता है, हमको पता है, सबको पता है, आपको क्यों नहीं पता ? आप क्यों नहीं आचार्यों की वाणी को follow करते ? करुणा कर के उनकी वाणी आपको प्राप्त हो रही है…‘राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य’…‘याँर प्राणधन−निताइ श्रीचैतन्य’ और slow बोलें…‘याँर प्राणधन−निताइ श्रीचैतन्य’…जिनके प्राणधन निताइ श्रीचैतन्य हैं, ‘राधाकृष्ण भक्ति विने नाहि जाने अन्य’…राधाकृष्ण की भक्ति के बिना अौर कुछ नहीं जानते । अब इससे स्पष्ट क्या बोलेंगे ? बोलो… ? ‘चैतन्य चन्द्रामृत’ नहीं…ये ‘चैतन्य चरितामृत’ था… ।

अक्षर भी…चरितामृत और चन्द्रामृत थोड़े अलग अक्षर हैं…तो चैतन्य चन्द्रामृत से भी जान सकते हैं थोड़ा सा… । देखिये, हम जो बोल रहे हैं, हम कभी नहीं कह रहे, आप हमारी बात को सुनो या हमारे गुरुजी की बात को सुनो…हम क्या कह रहे हैं… ? ये रूप गोस्वामी हैं और आपके कृष्णदास कविराज और नरोत्तमदास ठाकुर और प्रबोधानन्द सरस्वती…जो भी महान आचार्य हैं… ।

यह है श्लोक ८७ ‘चैतन्य चन्द्रामृत’ । इससे भी स्पष्ट होता है−

“यथा यथा गौरपदारविन्दे विन्देत भक्तिं कृत पुण्यराशिः ।
तथा तथोत्सर्पति हृदयकस्मात् राधा-पदाम्भोज सुधाम्बुराशिः ॥”

माने ‘यथा यथा गौरपदारविन्दे’… माने जैसे-जैसे गौर में भक्ति होती है…
‘विन्देत भक्तिं कृत पुण्यराशि:’ जैसे-जैसे गौर में भक्ति होती है…‘तथा तथोत्सर्पति हृदयकस्मात्’…माने…तथा तथा… । पहले बोला है यथा यथा…जैसे-जैसे गौर में भक्ति होती है, तथा तथा… वैसे-वैसे राधारानी की चरण…राधारानी अकस्मात्, अचानक से हृदय में प्रकाशित हो जाती हैं ।

अभी भी कोई doubt है कि हम राधाकृष्ण की सेवा के अलावा किसी और रस में हो सकते हैं ? महाप्रभु के…में तो…दास हैं… । स्पष्ट तो बोल रहे हैं…महाप्रभु के दास हो, तो क्या होगा ? दास होते-होते ही सब कुछ हो जायेगा । राधाकृष्ण का प्रेम प्राप्त… खेल तमाशा समझा है बच्चे ? जिस क्षेत्र में प्रवेश नहीं है, बोला मत करो उस विषय में । बालकों को बड़ों की बातें नहीं बोलनी चाहिये । आचार्यजनों से सुनना चाहिये, सीखना चाहिये श्रीचरणों में बैठकर कि क्या सत्य है ।

‘यथा यथा गौर पदारविन्दे’…जिस मात्रा में गौर प्रेम में हमारा मन आविष्ट होगा, उस मात्रा में राधारानी के चरण प्रकाशित होंगे ही होंगे । आप बोल रहे हो…और दृष्टिकोण भी देख सकते हो, जो पिछले ४०० वर्ष से…जो मन्त्र होते थे…गुरु मञ्जरी मन्त्र, रूप मञ्जरी मन्त्र, अनंग मञ्जरी मन्त्र, ललिता सखी मन्त्र, ये मन्त्र तभी तो करेंगे, जब उनकी प्राप्ति करनी होगी । आपका स्वरूप…कह रहे हो नहीं पता ब्रज में कि क्या होगा, तो ये मन्त्र किसलिये दिये गये हैं हमारे आचार्यों द्वारा ? रूप मञ्जरी मन्त्र करोगे, end में पता चलेगा कि आप भगवान् के सखा हो… ? आपको ये sense लगती है किसी को भी…ये बात ?

अच्छा…आप कामबीज, कामगायत्री करते हो…अच्छा… तो आप कामबीज, कामगायत्री कर रहे हो, और आपको अन्त में पता चलेगा कि आप दास हो या वात्सल्य रस में हो… ? अगर ये ‘चैतन्य चरितामृत’ को ही विश्वास करते हो, तो समझो…“वृन्दावने ‘अप्राकृत नवीन मदन’ कामगायत्री कामबीजे याँर उपासन ।” माने जो कामबीज होता है…कृष्ण मन्त्र और कृष्णगायत्री होते हैं, ये अप्राकृत नवीन मदन Transcendental Cupid की उपासना है । समझ रहे हो… ? Cupid…दिव्य कामदेव की उपासना है…Transcendental Cupid की…अप्राकृत नवीन मदन की…।

हम बहुत विनम्रता से यह बात कहना चाहते हैं कि…मतलब…किस हद तक कोई…एक बुद्धिमान व्यक्ति भी brain wash हो सकता है ? हमें समझ नहीं आता ।

आप सुबह-सुबह आरती गा रहे हो, सुबह-सुबह और शाम को भी, और फिर भी बात समझ नहीं आ रही ।‘नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी.. नमो नमः… ।’ ठीक है । ‘ब्रजे राधा-कृष्ण-सेवा पाब एइ अभिलाषी ।’ सुबह भी गा रहे हो और शाम को भी गा रहे हो । ‘ब्रजे राधाकृष्ण सेवा पाब एइ अभिलाषी ।’ और कह रहे हो कि मुझे पता नहीं कि मेरा ब्रज में स्वरूप क्या होगा ।

‘एइ’ माने this is my ONLY aspiration. ‘एइ भी’ अभिलाषा नहीं बोला जाता… this is my also one of my aspirations. कृष्ण-बलराम मिल गये, तो भी ठीक है…राधाकृष्ण मिल गये…सब ठीक है…अपना तो सब चलता है । ऐसा नहीं है । क्या बोल रहे हैं ? ‘राधाकृष्ण सेवा पाब एइ अभिलाषी ।’ माने…एक ही अभिलाषा है मेरी । आगे ‘एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर, सेवा-अधिकार दिये कर निज दासी’ । मेरा तो निवेदन है । आप कह रहे हो मेरा…पता नहीं मेरा स्वरूप क्या है ब्रज में ? आप…यहाँ आप कह रहे हो मेरा निवेदन है कि मुझे सेवा का अधिकार दे दो…कहते हैं मेरा तो पता ही नहीं है क्या है ? आप सोच रहे हो आप बोल भी क्या रहे हो ?

कृपया थोड़ा शान्ति से एक institutional pride को हटा कर, institutional ego को हटा कर, सोचो तो सही मैं क्या कर रहा हूँ ? अपने ऊपर रहम तो करो थोड़ा । एक बड़ी institutional ego…ego हटाओ । हम तो नहीं गा रहे न यह आरती…कि हमने आरती में डाली है । आप गा रहे हो न । ‘एइ निवेदन धर… ।’ माने…मैं भीख माँगता हूँ, निवेदन करता हूँ । Job के लिये निवेदन करते हो न…मेरा निवेदन पत्र है कि भाई ! मुझे job दे दो । क्यों ? क्योंकि मैं केवल आपकी job चाहता हूँ । ‘एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर… ।’

भाई ! मेरे को गुरु मञ्जरी के…उन्हीं का तो मन्त्र मिलता है हमारे यहाँ पर । मुझे…सखीर…उनके अनुगत करो । ‘सेवा-अधिकार दिये, कर निज दासी ।’ दीक्षा के समय सेवा अधिकार मिल जाता है । Qualified नहीं हो न, दीक्षा हुई, आपको अधिकार मिल गया । अब आप साधना करोगे, तो प्रकाशित होगा सब कुछ.. बस । हम यह कह रहे हैं…कितना brain wash अपने आप को कर रहे हो आप और औरों को कर रहे हो । थोड़ा तो सोचो । अपने ऊपर रहम खाओ !

‘एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर’… आप कह रहे हो मैं निवेदन करूँ…आप ही कह रहे हो…मुझे स्वरूप नहीं पता मेरा । फिर निवेदन क्यों कर रहे हो ? और इसी के अन्दर ५ पंक्तियाँ full हैं । उसमें 2nd–

‘मोर एइ अभिलाष,
विलास कुञ्जे दिओ वास ।
नयने हेरिब सदा युगल-रूप-राशि ॥’

‘मोर एइ अभिलाष…’ ‘एइ’ शब्द महत्त्वपूर्ण है । मेरी यही अभिलाषा है । क्या ?
‘विलासकुञ्जे दिओ वास…’ कि कुञ्ज में… ‘नयने हेरिब सदा…सदा राधाकृष्ण के दर्शन करूँ, सेवा ।‘नयने हेरिब सदा युगल-रूप-राशि’ इस युगल रूप का हर समय दर्शन करूँ । सखा करेगा दर्शन हर समय ? गोपी करेगी ? गोपी भी नहीं कर सकती । ललिता-विशाखा हर समय नहीं होती हैं साथ…पर मञ्जरी हर समय साथ होती है…दासी । दासी का जो सौभाग्य है, वो लक्ष्मी…लक्ष्मी तो छोड़ दो, वो ललिता-विशाखा से भी बहुत ऊँचा सौभाग्य है । वो हर समय राधाकृष्ण के साथ हैं । ललिता-विशाखा हर समय साथ नहीं होती हैं…बहुत जगह साथ नहीं होती…बहुत जगह साथ नहीं होती हैं… मतलब कि बहुत ही ज़्यादा जगह साथ नहीं होती ।

‘मोर एइ अभिलाष, विलासकुञ्जे दिओ वास… नयने हेरिब सदा युगल-रूप-राशि’
आप खुद कह रहे हो…मैं हर समय युगल के दर्शन करना चाहता हूँ, आप कह रहे हो…मैं निकुञ्ज में जाना चाहता हूँ, आप कहते हो…मैं राधाकृष्ण की सेवा करना चाहता हूँ, आप कह रहे हो…यही निवेदन है कि मुझे आप अनुगत कर दो और आप ही कह रहे हो कि मुझे पता नहीं मेरा ब्रज में स्वरूप क्या है ?? Be atleast little sensible !!

और आप ही गा रहे हो…‘संसार-दावानल-लीढ-लोक…’
“निकुञ्ज-यूनो रति-केलि-सिद्धयै
या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया ।”

तो आप खुद गा रहे हो सुबह-सुबह ४:०० बजे उठकर । क्या गा रहे हो ?
“निकुञ्ज-यूनो रति-केलि-सिद्धयै
या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया ।
तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥”

जो राधा कृष्ण की सेवा में लगे हैं, उन गुरुओं के चरणों की…आप वन्दना क्यों कर रहे हो, अगर आपने सख्य, दास्य या कुछ अौर बनना हो ? जो बनना होता है, उन्हीं गुरुओं की तो आप वन्दना करोगे न रोज़ सुबह उठकर या किसी की भी कर लोगे ? कि हमें कोई भी चलेंगे गुरु सिद्ध… । फिर सख्य की कर लो, फिर । आपको तो पता ही नहीं है आप हो कौन ? इन्हीं की क्यों कर रहे हो…‘संसार दावानल…’ ? और Altar में तो षड्गोस्वामी…सिर्फ़ मञ्जरियाँ हैं, और कोई है ही नहीं…चलो २-४ सखा होते…यशोदा माता बैठाते…एक षड्गोस्वामी…सब एक…तो एक doubt legitimate था । यह पता नहीं कौन है ? पता नहीं शायद यशोदा माता के under हों…हो सकता है ललिता-विशाखा के… । भाई ! बैठाया पूरा षड्गोस्वामियों को है और फिर भी doubt है कि मैं…, और कामबीज, कामगायत्री आप करते हो, तुलसी आरती आप करते हो, संसार दावानल आप करते हो, मञ्जरियों को आप Altar में बैठाते हो…उसके बाद भी नहीं मानते कि मैं राधाकृष्ण का भक्त हूँ । आपकी जय हो !आपकी बहुत-बहुत जय हो !

रहम करो अपने ऊपर !! Institution…Please leave Institutional fanaticism. नहीं तो…दुनिया में किसी के पास है जिसको भक्ति की knowledge भी न हो ? France…कहीं भी, West Indies…कहीं भी, उसको बोलोगे न, मैं ऐसे-ऐसे करता हूँ फिर भी मैं नहीं मानता हूँ, वो भी कहेगा– तुम पागल हो । यह कोई, हम कोई बहुत बड़ी complicated बात, algebra की बात तो कोई कर नहीं रहे, trigonometry, matrix, differentiation, integration…ये सब बातें तो हम नहीं कर रहे । Physics, Chemistry, Rocket Science, ऐसा तो कुछ भी नहीं हो रहा ।

इसमें क्या नहीं समझ आ रहा ? नहीं समझ आ रहा, तो हम तो हैं । अब बताओ, गुरुजी ने यही कार्य के लिये हमें यहाँ छोड़ा है ।

आप कोई भी राधाकुण्डाष्टकम्, राधिकाष्टकम्, कोई भी अष्टकम् पढ़ लो, स्वनियमदशकम्…इतने अष्टकम् हैं…रघुनाथदास गोस्वामी के और रूप गोस्वामी के । हर एक के अन्दर एक चीज़ आप common पाओगे फलश्रुति में । वो क्या बोलते हैं– ये फलश्रुति में आशीर्वाद देता हूँ कि जो इस स्तव का पाठ करेगा, वह राधाकृष्ण की प्रेममयी सेवा करेगा । हर…एक…किसी ने तो बोला होता कि आप यशोदा के समान वात्सल्य रस की प्राप्ति करो, ये मेरा स्तव पढ़कर ! या भाई ! आप दास्य…दास बन जाओगे, रक्तक, पत्रक की तरह ! या आप किसी प्रकार से शान्त भाव के भक्त…दर्शन करोगे कृष्ण की बिना किसी सेवा के !

ऐसा कुछ भी नहीं बोला गया । हर जगह एक ही फलश्रुति है– आप राधाकृष्ण की…और वही हम कह रहे हैं– भाई ! आप राधाकृष्ण के भक्त हो । वही महाप्रभु कह रहे हैं कि मैं कुछ ऐसी चीज़ देने आया हूँ जो पहले कभी नहीं थी । वही रूप गोस्वामी कह रहे हैं ।

हमें तो यह आश्चर्य है कि प्रश्न क्या है ? कोई यह बता दे । इसमें confusion, doubt है क्या ? हो सकता है क्या ?
यदि हम समझते हैं कि एक स्वरूप हमारा, यानि गौड़ीय वैष्णवों का गौर दास के रूप में है‌ और हमें लगता है कि शायद ब्रज में हमें स्वरूप का…हमारे मालूम नहीं है…कुछ भी हो सकता है, तो यह बहुत ही बचकानी सोच है, बालकवत् सोच है । कारण, हम आपको उदाहरण बतायेंगे कि ब्रज लीला का निरन्तर पद-गान जो है, स्वरूप दामोदर गोस्वामी करते हैं और महाप्रभु व अन्य पार्षद जो हैं, वो उस ब्रजभाव में, मञ्जरी भाव में, जो राधारानी की दासी का भाव है, उसमें प्रवेश कर जाते हैं । उदाहरण के रूप से आपको समझायेंगे− हम भी कैसे प्रवेश करते हैं और हमारी सेवा कैसे एक जैसी है वहाँ पर… । जो नित्य लीला में, नित्य नवद्वीप में, महाप्रभु की जो सुबह-सुबह जब आरती होती है जिसे आप मंगल आरती कहते हैं, तो कैसे होती है ? जो हम साधक हैं, साधक दास, हम आरती की थाली सजा कर, दीप इत्यादि की थाली सजा कर देते हैं, आदेशानुसार रूप गोस्वामिपाद को ।

फिर रूप गोस्वामिपाद देते हैं स्वरूप‌ गोस्वामी जी को, फिर स्वरूप गोस्वामी आरती करते हैं महाप्रभु की, फिर नित्यानन्द प्रभु की, अद्वैताचार्य जी की… फिर जो प्रसादी होती है, वह गदाधर पण्डित, श्रीवास पण्डित इत्यादि सबको दी जाती है । यह हुआ नित्य नवद्वीप में आरती का क्रम । अब आप देखिये, बिल्कुल यही क्रम हम लोग ब्रज में भी करते हैं । कैसे ? कि हम जो राधारानी की दासी हैं, मञ्जरी हैं…अपने…जब हमें सेवा का इंगित मिलता है, तो हम आरती की, युगल किशोर की आरती होनी है, तो हम क्या करते हैं ? आरती की थाली को सजाते हैं । दीप इत्यादि से सजाकर हम किनको देते हैं ? रूप मञ्जरी जी को । नवद्वीप में किसको देते हैं ? रूप गोस्वामी को । देता कौन है ? हम । वृन्दावन में कौन देता है ? हम ही देते हैं मञ्जरी स्वरूप से । किनको देते हैं ? वो ही रूप गोस्वामी यहाँ रूप मञ्जरी हैं, उनको‌ देते हैं ।

अब नवद्वीप में क्या किया हमने ? पहले रूप मञ्जरी को…रूप गोस्वामी को दिया, उन्होंने स्वरूप दामोदर को दिया । यहाँ क्या होता है ? हम यहाँ रूप मञ्जरी को देते हैं, वो ललिता सखी को देती हैं । स्वरूप दामोदर गोस्वामी कौन हैं ? ललिता सखी । बिल्कुल as-it-is… तो प्रश्न ही नहीं है कि हमें ब्रज का स्वरूप मालूम नहीं है । यह तो प्रश्न ही गलत है । Simultaneously जो-जो उस लीला में हो रहा है, वैसे ही क्रम इस लीला में चल रहा होता है ।