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Svarüpa will be revealed…!!

भक्त− महाराज जी ! एक माताजी हैं, लक्ष्मीप्रिया देवी दासी । उनका स्वरूप को लेकर प्रश्न है । वो पूछ रहे हैं कि उनको बताया जाता है कि दिन भर बस जप करते रहो और स्वरूप जो है, आप क्या हैं, वो आपको बाद में पता चल जायेगा ।‌ क्या यह सही है बात ? और यही same प्रश्न…एक माधव दास जी हैं मुम्बई से, वो भी यही प्रश्न पूछ रहे हैं ।‌

उनका कहना है कि जैसे निम्बार्क सम्प्रदाय है, राधावल्लभ सम्प्रदाय है, वहाँ पर तो प्रथम दिन से ही बताया जाता है कि राधाकृष्ण भगवान् हैं और आप उनके सेवक हैं और उसी चेतना में आपको जप करना है । तो यहां Iskcon में या कहीं भी ऐसे क्यों बताया जाता है कि आप जप करते रहें और बाद में आपको स्वरूप पता चलेगा ? तो क्या बात सत्य है ? कृपया करके इसके ऊपर प्रकाश डालें महाराज जी ।

महाराज जी− सुनने में ऐसा लगता है जैसे कितने निष्काम भाव हैं । ‘हे कृष्ण ! हम आपसे कुछ नहीं चाहते, आप जो चाहे बना देना ।’ सुनने में कितनी निष्कामता लग रही है, परन्तु आप यह समझो– किसी युग में सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग, कलियुग, किसी भी युग में किसी‌ भी सम्प्रदाय में चले जाओ…ऐसा नहीं है कि उपासना करे जा रहे हो, अंत में आपको पता चलेगा चित्त शुद्ध होने के बाद, भाव के किस स्तर पर आने के बाद कि आपका सम्बन्ध क्या है ? पहले दिन से हर सम्प्रदाय में पता होता है जब गुरु दीक्षा देते है कि मेरे ठाकुर कौन हैं और मेरा उनसे क्या सम्बन्ध है ? १०–२० साल, ४० साल की उपासना करने के बाद भी नहीं, यह तो प्रथम बात है ।

और ये गौड़ीय वैष्णव समाज में भी जो modern संस्थायें आयी हैं १००-१५० साल में, यदि ये छोड़ दी जायें, तो इससे पहले गौड़ीय वैष्णव समाज में भी इसी प्रकार था, स्पष्टीकरण था कि हम गौड़ीय वैष्णव हैं, तो हमारे ठाकुर कौन हैं– राधाकृष्ण व गौरा महाप्रभु । तो इन दोनों के ही मन्त्र और इन दोनों की उपासना होती थी । १००-१५० साल पहले भी ऐसा ही था और हर युग में, हर सम्प्रदाय में, ऐसा ही है । इसमें चित्त-शुद्धि के बाद हमें यह पता चलेगा कि हमारा स्वरूप क्या है कि मैं स्वरूप में दिखता कैसा हूँ ? भगवान् दिखते कैसे हैं ? यह चित्त-शुद्धि से पता चलता है ।

सम्बन्ध तो प्रथम दिन से स्थापित करते हैं गुरुदेव । प्रथम दिन से गुरुदेव सम्बन्ध स्थापित करते हैं कि आपके ठाकुर ये हैं, आप इनके दास हो या सखा हो या इनकी दासी हो, क्या हो…वो प्रथम दिन से स्थापित होता है । उसमें सोचना नहीं है कि मेरा सम्बन्ध क्या होगा ? भगवान् ने निर्णय करके बताया हुआ है ।

आपका प्रश्न है कि हम जो जप करते हैं, हम जप करते रहेंगे…करते रहेंगे, और एक दिन हमें कभी पता‌ चलेगा जब हमारी चित्त शुद्धि होगी कि हमारा भगवान् से क्या सम्बन्ध है– क्या यह चेतना ठीक है या नहीं ?
देखिये,‌ पहले तो आपको यह समझना होगा कि आप जो हरे कृष्ण महामन्त्र जप कर रहे हैं, आप गौड़ीय वैष्णव हैं । तो‌ गौड़ीय वैष्णव क्या होता है, वो समझना होगा । जब यही‌ नहीं समझे, तो यह प्रश्न की कोई धरा नहीं है ।‌

देखिये, ‘चैतन्यचन्द्रामृत’ नामक ग्रन्थ में श्लोक नम्बर १२१ में ‌बताया गया है− “श्रीमद्भागवतस्य यत्र परमं तात्पर्यम्”– यह काफी लम्बा श्लोक है । इसका सरलार्थ यह है कि श्रीमद् भागवत् का जो निगूढ़ तात्पर्य है…भागवत् का एक बहुत गूढ़ अर्थ है, जो रास प्रसंग में भी बहुत संक्षिप्त रूप से थोड़ा सा बताया है श्रील शुकदेव गोस्वामी ने । और यहाँ बताया गया है− “यद्राधारतिकेलि-नागर रसास्वादैक सद्भाजनं” यानि ये जो राधारति केलि है, जो राधाकृष्ण का जो मिलन है और ये जो आस्वादन की वस्तु है… राधारानी को क्या आस्वादन प्राप्त होता है ? केवल इसको प्रकाशित करने के लिये कृष्ण गौरहरि के रूप में आये हैं । सरलार्थ– जो भागवतम् के गूढ़ प्रसंग रास में भी जो बात नहीं बतायी गयी, महाप्रभु केवल, केवल-केवल-केवल-केवल-केवल वही चीज़ देने के लिये आये हैं । जो रास-प्रसंग में भी नहीं बताई गयी…कितनी गूढ़ बात । सख्य रस पहले भी था । उसमें तो रास प्रसंग की भी आवश्यकता नहीं है । वात्सल्य रस भी पहले था । उसमें भी रास प्रसंग की आवश्यकता नहीं है । दास्य रस…सब रस पहले से थे ।

तो श्रील रूपगोस्वामी क्या कह रहे हैं ? ‘अनर्पितचरीं चिरात्’– जो पहले अर्पित नहीं किया गया । ये सब तो पहले भी थे− दास्य रस, सख्य रस । तो आपका जो प्रश्न था कि आगे चलकर पता चलेगा कि हमारा कौन सा रस है, यह बात उचित नहीं है क्योंकि वो देने ही एक रस आये हैं । जो रास…जो रास में भी नहीं है, वो रस देने के लिये महाप्रभु आये हैं । आप सोच पा रहे हैं…आप गौड़ीय वैष्णव को क्या प्राप्त होता है ? जो रास में भी नहीं है, वो देने के लिये आये हैं ।

और ऐसा नहीं है कि हमें सोचना है कि कभी मैं जप करूँ, हो सकता है मैं सखा हूँ, हो सकता है मैं सखी हूँ, हो सकता है मैं दास हूँ, हो सकता है मैं यशोदा माता की तरह वात्सल्य रस में हूँ, ऐसा नहीं सोचना । केवल जो महाप्रभु देने आये हैं, उस तत्त्व में स्थित होकर हमें सारी भक्ति की क्रियायें करनी हैं ।

यह श्लोक नम्बर ११2 है ‘श्रीचैतन्य चन्द्रामृत’ का । उसमें वर्णन आया है– श्रीचैतन्यचन्द्र के द्वारा, जब भक्ति योग प्रकाशित हुआ, तो दूसरा कोई अन्य रस रह ही नहीं गया । ध्यान दें, जब महाप्रभु ने, जो भक्ति रस प्रकाशित किया, जो कि रास प्रसंग में भी गूढ़ है, यानि कि राधाकृष्ण की सेवा जो प्रकाशित की, तो संसार में अन्य रस उस समय कोई और रह ही नहीं गया । सभी को किस में डुबा दिया– राधाकृष्ण की सेवा में ।

सख्य रस, दास्य रस… ये सब तो पहले भी थे । महाप्रभु जो दे रहे हैं वो, वो वस्तु है, जो अन्य किसी युग में भी नहीं थी और यहाँ बता रहे हैं कितनी महत्त्वपूर्ण बात कि कोई अन्य दूसरा रस रह ही नहीं गया । एक ही रस रह गया । क्या रस ? राधाकृष्ण की अन्तरंग सेवा । महाप्रभु और कुछ देने के लिये नहीं आये हैं । और कुछ देने के लिये नहीं आये । यह एक और ग्रन्थ है – ‘सार्वभौम शतक’ । बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके आप श्लोक नम्बर २ से समझें । यह श्लोक छोटा सा है, तो आपको बड़े सरलार्थ में समझ भी आ जायेगा ।

“श्रीराधाकृष्णयोः सेवां स्थापयित्वा गृहे गृहे ।
श्रीमत्संकीर्तने गौरो नृत्यति प्रेम विह्वलः॥”

माने ‘श्रीराधाकृष्णयोः सेवां स्थापयित्वा गृहे गृहे ।’ महाप्रभु ने ‌राधाकृष्ण की सेवा घर-घर में स्थापित की । यह नहीं देखा कौन qualified है, कौन qualified नहीं है । पात्र-अपात्र का तो उनके मन में विचार भी नहीं आता कभी कि यह योग्य है, यह अयोग्य है । उन्होंने कृष्ण-बलराम के विग्रह की सेवा स्थापित नहीं की घरों के अन्दर ।

क्या लिखा है– श्रीराधाकृष्णयोः सेवां स्थापयित्वा गृहे गृहे…स्थापित की राधाकृष्ण की सेवा घर-घर में । कृष्ण-बलराम की सेवा स्थापित नहीं की, लड्डु गोपाल की सेवा स्थापित नहीं की, नृसिंह भगवान् जी के विग्रह की सेवा स्थापित नहीं की, दास भाव में सेवा स्थापित नहीं की । क्या किया ?

‘श्रीराधाकृष्णयोः सेवां स्थापयित्वा गृहे गृहे ।’ और यह समझना जो है, यह कोई मुश्किल भी नहीं है । आप देखेंगे, आप किसी भी सम्प्रदाय में चले जायें, हर कोई केवल अपने इष्ट जो उनके…जिनकी उपासना करते हैं, केवल उन्हीं की सेवा स्थापित होती है । जो वात्सल्य रस के उपासक हैं, वो बाल गोपाल के रूप में ही सेवा करते हैं ।

उनके और कोई…वो राधा-कृष्ण के विग्रह नहीं स्थापित करते, न ही वो आरतियाँ करते हैं । जो कृष्ण-बलराम के सख्य रस के उपासक हैं, वो केवल कृष्ण-बलराम या केवल कृष्ण के ही विग्रह की स्थापना करते हैं । उन्हें राधाकृष्ण के विग्रह की न आवश्यकता है, न वो (उनकी उपासना) करते हैं । आप किसी भी सम्प्रदाय में चले जायें, केवल एक ही ठाकुर होते हैं । ऐसा नहीं कि नृसिंह भगवान् भी हैं, कृष्ण-बलराम भी हैं, सीता-राम-लक्ष्मण-हनुमान भी हैं, जगन्नाथ-बलराम-सुभद्रा भी हैं, और वराह-लक्ष्मी भी हैं, और सब हैं । ऐसा नहीं है । किसी भी सम्प्रदाय में, किसी भी युग में चले जायें, ठाकुर केवल एक होते हैं । हर एक के उपास्य देव इतने सारे नहीं होते हैं । तो यहाँ बताया है कौन से ठाकुर होने चाहिये ? महाप्रभु क्या बता रहे हैं ? ‘स्थापयित्वा गृहे गृहे श्री राधाकृष्णयोः सेवां ।’ राधाकृष्ण की सेवा घर-घर में उन्होंने स्थापित की है ।

इसको आप अन्य प्रकार से भी समझ सकते हैं । ये राधारससुधानिधि ग्रन्थ में १४८ श्लोक में बताया गया है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण श्लोक है−

“ब्रह्मानन्दैकवादाः भगवद्वन्दनानन्दमत्ताः केचिद् गोविन्दसख्याद्य”

साधकों में से कोई-कोई होता है जो ब्रह्मानन्द की उपासना करता है कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ । प्रबोधानन्द सरस्वती बता रहे हैं– ऐसे साधक भी होते हैं । फिर बता रहे हैं– कोई-कोई भगवद्-वन्दना आनन्द में डूबता है कि भगवान् नारायण सर्वोपरि हैं, उनकी वन्दना करनी चाहिये, वे जन्म-मृत्यु के सागर से निकालेंगे− तो ये भगवद्-आनन्द में डूबने वाली प्रार्थनायें होती हैं । कोई-कोई ‘केचिद् गोविन्दसख्य’ कोई-कोई गोविन्द कृष्ण के सखा बनने की इच्छा करता है कि मैं सखा बनूँगा । कोई-कोई इच्छा करता है सखा बनने की ।

और जो राधा दासी हैं यानि कि जो गौड़ीय वैष्णव हैं, वो राधा दासी जब बनते हैं, उनकी अभिलाषा होती है राधा दासी बनने की, तो राधारानी के जो चरणों की, जो छटा है, नखचन्द्रमणि की जो छटा है, छटा… वो छटा इतनी आनन्दमय होती है कि जितने भी ये रस हैं, ये सब, एक समझ लीजिये एक छोटे से सीकर में समा जाते हैं । जो राधारानी के चरणकमलों की सेवा है, उसका जो आस्वादन है, वो सब श्रीकृष्ण के सख्य, वात्सल्य, दास्य.. इसके मुकाबले एक समुद्र के समान है । और ये जो आस्वादन, जो अन्य सख्य रस… वो एक सीकर… ।

सीकर समझते हैं ? बूँद का भी एक अंश− उसे सीकर कहते हैं । तो इतना चमत्कार है राधारानी की नखचन्द्रमणि छटा का । अभी तो सेवा-रस की बात नहीं बतायी । सेवा-रस में क्या आस्वादन है, वो तो बात ही नहीं बताई अभी । सिर्फ नखचन्द्रमणि छटा का आस्वादन…

तो जो कोई उपासना ब्रह्मानन्द की करते हैं, वो करते रहें…जो कोई सख्य की करते हैं, करते रहें…पर हमें क्या धारण करना है हृदय में ? कि मुझे केवल और केवल राधारानी की दासी बनना है जो कि महाप्रभु द्वारा स्थापित की हुई एकमात्र भगवद् उपासना है गौड़ीय वैष्णव की । ऐसा नहीं है कि कोई, कोई उपासना कर रहा है, वो भी ठीक है, कोई यह कर रहा है, वो भी ठीक है । सुनने में यह ठीक लगता है ।

ऐसा नहीं है कि करे जा रहे हैं नाम और यह ही नहीं पता कि उपासना किसकी है । ऐसा नहीं है कि नाम कर रहे हो और आपको यह भी नहीं पता अभी तक कि उपासना किनकी कर रहे हो । और जब तक हम आचार्यों की वाणी को अच्छे से नहीं समझेंगे, तो हमें समझ ही नहीं आता कि भक्ति होती क्या है, उन्नति तो प्रश्न ही अलग है ‌!
अब श्रील रघुनाथदास गोस्वामी द्वारा विरचित ग्रन्थ ‘विलापकुसुमाञ्जलि’− इसमें आप पढ़ेंगे श्लोक नम्बर १६ में इतना स्पष्टीकरण है । ये आप समझें −

पादाब्जयोस्तव विना वर-दास्यमेव, नान्यत् कदापि समये किल देवि याचे ।
सख्याय ते मम नमोऽस्तु नमोऽस्तु नित्यं, दास्याय ते मम रसोऽस्तु रसोऽस्तु सत्यम् ॥

राधारानी से प्रार्थना की जा रही है । क्या प्रार्थना है ? कि “हे राधारानी ! मैं आपके चरणों में ‘ पादाब्जयोस्तव विना वर-दास्यमेव’ आपके चरणों को छोड़कर मैं कुछ नहीं चाहता ।” यदि हम कोई भी रस, बाद में पता चलेगा कि मेरा क्या भगवान् से सम्बन्ध है, तो क्या यह प्रार्थना कर सकते हैं कि आपके चरणों को छोड़कर मैं कुछ नहीं चाहता ? प्रार्थना भी‌ नहीं कर सकते । फिर क्या बता रहे हैं ?

‘सख्याय ते मम नमोऽस्तु नमोऽस्तु नित्यं ।’
मतलब− “हे राधारानी… !”
आप समझो− प्रार्थना कैसे हो रही है ?
राधारानी समक्ष हैं । रघुनाथदास गोस्वामी सामने हैं । जैसे मान लीजिये− ये राधारानी हैं, और रघुनाथदास गोस्वामी साथ हैं ।
तो प्रार्थना क्या है ?

“हे राधारानी ! मैं न, आपकी सखी बनने को तो बहुत प्रणाम करता हूँ । मुझे आपकी कोई सखी नहीं बनना… ललिता-विशाखा और…मुझे अापकी कोई सखी नहीं बनना, जो कृष्ण का अंग-संग करती हैं ।”

‘सख्याय ते मम नमोऽस्तु नमोऽस्तु नित्यं ।’
“मैं नित्य हाथ जोड़कर बोलता हूँ कि मुझे अपनी सखी मत बनाना । मुझे गोपी नहीं बनना ।” स्पष्ट मना कर रहे हैं ।

अच्छा, क्या बनना है फिर तुमने ? राधारानी पूछेंगी− अच्छा क्या चाहती हो, बोलो ?
तो यह उत्तर है− ‘दास्याय ते मम रसोऽस्तु रसोऽस्तु सत्यम् ।’ मैं सत्य बोल रहा हूँ‌, सत्य और बिल्कुल सत्य बोल रहा हूँ− आपके दास्य को छोड़कर और मैं कुछ नहीं चाहता ।

रघुनाथदास गोस्वामी नित्यसिद्ध परिकर हैं । उनको यह प्रार्थना की‌ ज़रूरत नहीं है करने की । वो अपने स्वरूप में सर्वदा स्थित हैं । वे गौड़ीय वैष्णव‌ साधकों को कह रहे हैं कि तुम ऐसे प्रार्थना करो…मानो कि राधाकृष्ण का जब जप कर रहे हो । राधारानी-कृष्ण अपने नाम से अभिन्न हैं । हरे कृष्ण…तो राधाकृष्ण आपको सुन रहे हैं । अपने नाम से अभिन्न हैं । प्रार्थना करो– “हे राधे ! मैं कोई दास्य, सख्य… कुछ नहीं बनना चाहता, गोपी भी नहीं बनना चाहता, मैं कृष्ण का अंग-संग भी नहीं चाहता । चाहता हूँ तो केवल क्या चाहता हूँ ? क्या चाहता हूँ ? केवल आपका दास्य । इसके अलावा ‘रसोऽस्तु रसोऽस्तु सत्यम्’ ।

इतना रस है, इतना रस है आपके‌ दास्य में, कि जो ललिता-विशाखा और जितनी भी गोपियाँ‌ हैं, जो कृष्ण का अंग-संग करती हैं, उनको जो आस्वादन प्राप्त होता है− वो एक सीकर के समान है ।‌ सीकर बोला गया है । आपको समझ में नहीं…समझ लो आपकी भाषा में एक बूँद के समान है । और अब सीकर बोलोगे पता नहीं क्या होता है । मतलब छोटी-सी बूँद और राधारानी का जो आस्वादन है, वो ही संचारित करती है राधारानी अपनी कृपा से ।